द्वितीय खंड
:
3.
ऐच्छिक परवानों की होली
जिस दिन नया एशियाटिक बिल विधान-सभा में पास होनेवाला था, उसी दिन 'अल्टिमेटम'
अथवा निश्चय-पत्र की अवधि पूरी होती थी। अवधि बीतने के दो-एक घंटे बाद परवाने
जलाने की सार्वजनिक विधि पूरी करने के लिए एक सभा बुलाई गई थी।
सत्याग्रह-समिति ने यह माना था कि आशा के विपरीत कहीं सरकार का अनुकूल उत्तर
मिल जाए तो भी सभा बुलाना व्यर्थ नहीं होगा, क्योंकि उस स्थिति में सभा का
उपयोग सरकार का अनुकूल निर्णय कौम को सुनाने में कर लिया जाएगा।
लेकिन समिति का विश्वास यह था कि कौम के निश्चय-पत्र का सरकार कोई उत्तर ही
नहीं देगी। हम सब समय से पहले सभास्थान पर पहुँच गए थे। हमने ऐसी व्यवस्था
भी कर रखी थी कि यदि सरकार का तार से कोई उत्तर आए, तो वह तुरंत ही सभा में
पहुँच जाए। सभा का समय 4 बजे का रखा गया था। नियमानुसार सभा जोहानिसबर्ग की
हमीदिया मस्जिद के मैदान में 16 अगस्त, 1908 को हुई। सारा मैदान
हिंदुस्तानियों से खचाखच भर गया था। दक्षिण अफ्रीका के हब्सी अपना खाना बनाने
के लिए जरूरत के मुताबिक चार पैरों वाली छोटी या बड़ी लोहे की कड़ाही का उपयोग
करते हैं। परवाने जलाने के लिए ऐसी ही एक बड़ी से बड़ी कड़ाही, जो उपलब्ध हो
सकी, एक हिंदुस्तानी व्यापारी की दुकान से मंगवा ली गई थी। उसे एक कोने में
मंच पर रख दिया गया था।
सभा शुरू होने ही वाली थी कि एक स्वयंसेवक साइकिल पर आ पहुँचा। उसके हाथ में
तार था। उसमें सरकार का उत्तर था। उत्तर में हिंदुस्तानी कौम के निश्चय के
लिए खेद प्रकट किया गया था और यह भी कहा गया था कि सरकार अपना निश्चय बदलने
में असमर्थ है। तार पढ़कर सभा में सबको सुना दिया गया। सभाने उसका स्वागत
किया, मानो सभा के लोगों को इस बात का हर्ष हुआ कि सरकार द्वारा निश्चय-पत्र
की माँग स्वीकार कर लिए जाने से परवानों की होली जलाने का जो शुभ अवसर उनके
हाथ से चला जाता वह चला नहीं गया! ऐसा हर्ष उचित था या अनुचित, यह निश्चय के
साथ कहना बहुत कठिन है। जिन जिन लोगों ने तालियाँ बजाकर सरकारी उत्तर का स्वागत किया, उनका
उद्देश्य जाने बिना उचित या अनुचित निर्णय नहीं किया जा सकता। लेकिन इतना तो
कहा ही जा सकता है कि यह हर्ष सभा के उत्साह का सुंदर चिह्न था। सभा के लोगों
को अब अपनी ...
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