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धारावाहिक प्रस्तुति (25 अक्‍टूबर, 2019), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
मोहनदास करमचंद गांधी

द्वितीय खंड : 3. ऐच्छिक परवानों की होली

जिस दिन नया एशियाटिक बिल विधान-सभा में पास होनेवाला था, उसी दिन 'अल्टिमेटम' अथवा निश्‍चय-पत्र की अवधि पूरी होती थी। अवधि बीतने के दो-एक घंटे बाद परवाने जलाने की सार्वजनिक विधि पूरी करने के लिए एक सभा बुलाई गई थी। सत्‍याग्रह-समिति ने यह माना था कि आशा के विपरीत कहीं सरकार का अनुकूल उत्तर मिल जाए तो भी सभा बुलाना व्‍यर्थ नहीं होगा, क्‍योंकि उस स्थिति में सभा का उपयोग सरकार का अनुकूल निर्णय कौम को सुनाने में कर लिया जाएगा।

लेकिन समिति का विश्‍वास यह था कि कौम के निश्‍चय-पत्र का सरकार कोई उत्तर ही नहीं देगी। हम सब समय से पहले सभास्‍थान पर पहुँच गए थे। हमने ऐसी व्‍यवस्‍था भी कर रखी थी कि यदि सरकार का तार से कोई उत्तर आए, तो वह तुरंत ही सभा में पहुँच जाए। सभा का समय 4 बजे का रखा गया था। नियमानुसार सभा जोहानिसबर्ग की हमीदिया मस्जिद के मैदान में 16 अगस्‍त, 1908 को हुई। सारा मैदान हिंदुस्‍तानियों से खचाखच भर गया था। दक्षिण अफ्रीका के हब्सी अपना खाना बनाने के लिए जरूरत के मुताबिक चार पैरों वाली छोटी या बड़ी लोहे की कड़ाही का उपयोग करते हैं। परवाने जलाने के लिए ऐसी ही एक बड़ी से बड़ी कड़ाही, जो उपलब्‍ध हो सकी, एक हिंदुस्‍तानी व्‍यापारी की दुकान से मंगवा ली गई थी। उसे एक कोने में मंच पर रख दिया गया था।

सभा शुरू होने ही वाली थी कि एक स्‍वयंसेवक साइकिल पर आ पहुँचा। उसके हाथ में तार था। उसमें सरकार का उत्तर था। उत्तर में हिंदुस्‍तानी कौम के निश्‍चय के लिए खेद प्रकट किया गया था और यह भी कहा गया था कि सरकार अपना निश्‍चय बदलने में असमर्थ है। तार पढ़कर सभा में सबको सुना दिया गया। सभाने उसका स्‍वागत किया, मानो सभा के लोगों को इस बात का हर्ष हुआ कि सरकार द्वारा निश्‍चय-पत्र की माँग स्‍वीकार कर लिए जाने से परवानों की होली जलाने का जो शुभ अवसर उनके हाथ से चला जाता वह चला नहीं गया! ऐसा हर्ष उचित था या अनुचित, यह निश्‍चय के साथ कहना बहुत कठिन है। जिन जिन लोगों ने तालियाँ बजाकर सरकारी उत्तर का स्‍वागत किया, उनका उद्देश्‍य जाने बिना उचित या अनुचित निर्णय नहीं किया जा सकता। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह हर्ष सभा के उत्‍साह का सुंदर चिह्न था। सभा के लोगों को अब अपनी ...

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महामना मालवीय जी के वचन

मदनमोहन मालवीय

जिस देश की जो भाषा है उसी भाषा में वास्‍तव में उस देश के न्‍याय, कानून, राजकाज, कौंसिल इत्‍यादि का कार्य होना चाहिए। हमारे यहाँ की परिस्थिति बिल्‍कुल इससे विपरीत है। जिस भाषा का हमारे भाइयों को कुछ भी परिचय नहीं है, उस भाषा में हमारे यहाँ के सब काम-काज होते हैं। हमारे देश के भाइयों के मरने-जीने का न्‍याय हो, पर हो वह दूसरी भाषा में, यह कैसे आश्चर्य की बात है? वास्‍तव में न्‍याय उस भाषा में होना चाहिए, जिसका एक-एक शब्‍द उसकी समझ में आता हो, जिसका कि न्‍याय हो रहा है। कानून और न्‍याय के नियम सब देश-भाषा में ही बनने चाहिए। अभी जिस भाषा में इसकी सृष्टि होती है उसे बहुत ही थोड़े लोग समझते हैं। यह अप्राकृतिक है। इंग्‍लैण्‍ड में पार्लियामेंट का सब काम उसी भाषा में होता है जिसे गाड़ीवान और भंगी तक सब समझ सकते हैं। हमारे यहाँ उसे मुट्ठी भर लोग समझते हैं। संपादक और विद्वान लोग विदेशी भाषा में बने हुए उन नियमों को, जो वह भाषा बिल्‍कुल नहीं जानते, उन्‍हें कहाँ तक समझाएँ? (सन 1919 में नवम हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन के अध्‍यक्ष-पद के भाषण से)

साहित्‍य
स्‍वामी विवेकानंद
साधना के प्राथमिक सोपान

व्याख्यान
डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी
दिल्‍ली विश्वविद्यालय दीक्षांत भाषण

संस्कृति
प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल
मूल्‍य-सृजन एवं मूल्‍य-संकट का सांस्‍कृतिक सन्‍दर्भ

कहानी
ओमा शर्मा
ग्‍लोबलाइजेशन

सिनेमा
उमेश चतुर्वेदी
कैसे बचे कस्बाई फिल्म संस्कृति?

आलोचना
अभिजीत सिंह
जयशंकर प्रसाद: आधुनिकता और दृष्टि निर्माण का ऐतिहासिक स्रोत

संरक्षक
प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल
(कुलपति)

 संपादक
प्रो. अवधेश कुमार
फोन - 9926394707
ई-मेल : avadesh006@gmail.com

समन्वयक
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ISSN 2394-6687

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